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Diya Chaurasiya

Abstract

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Diya Chaurasiya

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वो घर जो अपना था ही नहीं

वो घर जो अपना था ही नहीं

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मैं तो उस आंगन मे पली बड़ी 

खेलते खेलते उस दरवाजे के पास खड़ी 

राह देखती उनका, 

जिनको मैं पापा कहूँँ.... 

उनके आने पे उनके गले लग पड़ी

पर शायद, 

ये घर, जो अपना था ही नहीं...... 


नखरे पे नखरे दिखाऊँ

पापा और मम्मी को मेरी कला बताऊँ 

ये तो शुरू हो गई पढ़ने के बारी 

सुबह उठूँ तो देखती रहूँ बारिश की तैयारी...

उठाऊँ कागज और बनाऊँ नाव की कयारी.... 

पर शायद, 

ये घर, जो अपना था ही नहीं.... 


चल पड़ी मै उस राह की ओर, जिसमे भविष्य बनाना है 

दोस्तों के साथ उन पलो का आनंद उठाना है 

अब तो जिंदगी मोड़ ले रही है उस राह पर 

जिसका अंदाज लगाना है मुश्किल 

पर शायद, 

ये घर, जो अपना था ही नहीं.... 


व्याख्या बता दी उस जीवन की 

जो लोग अपने थे ही नहीं 

लोगो का कहना है, 

ससुराल तुम्हारा गहना है....

पर शायद.. 

वो घर था..

जो अपना हुआ ही नहीं!. 



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