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Sanjay Verma

Abstract

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Sanjay Verma

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उजड़ जाती जिंदगी

उजड़ जाती जिंदगी

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शराब क्या होती है ख़राब 

कोई कहता गम मिटा ने की दवा 

जिंदगी में कितने गम 

और कितने ही कर्म 

दोस्तों की शाम की महफ़िल 

जवां होती, हसीं होती।


बड़े दावे बड़ी पहचान के दावे 

सुबह होते हो जाते निढाल 

रातो को राह डगमगाती 

जैसे भूकंप आया 

या फिर कदम लड़खड़ाते 

हलक से नीचे उतर कर 

कर देती बदनाम।

 

जैसे प्यार में होते बदनाम 

शराबी और दीवाना 

एक ही घूमती दुनिया के तले 

मयखाने करते मेहमानों का स्वागत 

जैसे रंगीन दुनिया की बारात आई 

तमाशो की दुनिया में 

देख कर हर कोई हँसता /दुबकता 

दारुकुट्टिया नामंकरण हो जाता।

 

रातों का शहंशाह 

सुबह हो जाता भिखारी

बच्चे स्कूल जाते समय पापा से 

मांगते पॉकेट मनी 

ताकि छुट्टी के वक्त दोस्तों को

खिला सके चॉकलेट 

फटी जेब और

खिसयाती हंसी।

 

दे न पाती और कुछ कर न पाती 

बच्चों के चेहरे की हंसी छीन लेती  

इसलिए होती शराब ख़राब 

सुनहरे ख्वाब दिखाती 

किंतु पूरे ना कर पाती।

 

डायन होती है शराब

पूरे परिवार को खा जाती 

और उजड़ जाते जिंदगी ख्वाब।


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