ठिठुरन भरी पूस की रात
ठिठुरन भरी पूस की रात
हम गरीबों का मसीहा कौन है ?
चांँद से बातें करता हूंँ,
सिर पे मांँ - बाप का हाथ नहीं,
पर, छोटे भाई का साथ है,
अब खोने को कुछ बचा क्या है !
अपना कोई ठिकाना नहीं,
सड़क पर भटकता हूँ, मांँगने से कुछ मिल जाता है,
छोटे भाई का आधा पेट भरता हूंँ, ख़ुद पानी पी के रहता हूंँ,
क़िस्मत का खेल है, हम गरीबों का मसीहा कौन है ?
अनगिनत तारों से सवाल पूछता हूंँ।
ठिठुरन भरी पूस की रात में, न रज़ाई, न क़ंबल
एक दूसरे को गले लगा कर पटरियों बैठा हूंँ,
बदन के ताप से, थोड़ी - सी गर्माहट मिल रही,
रोड़ पर जाते लोग,
हाथ में कुछ सिक्के पकड़ा जाते हैं
तो कोई हम पर तरस खाकर,
कपड़े का थैला पकड़ा जाता,
कब तक टुकड़ों पर जिएंगे,
इनसे अब गुज़ारा नहीं होगा,
आसमाँ को देख सवाल करता हूंँ,
हम गरीबों को मसीहा कौन है ?
