स्वदेश
स्वदेश
आशा के सावन को सींच के
जिसने पतझड को बसंत बनादिया
परदेस की बहारों में डूब के
तूने उस स्वदेस को भुलादि या।
फिरंगी फूलों का नशा
क्या खूब सर चढ़ के बोला
इन महकते फूलों के आगे
अपनी मिट्टी कि ख़ुशबू को तूने भूला।
शाखावों पे लगे फ़ल
तुम्हें ललचा रहे हैं
तुम क्यों नहीं समझते
ये तुम्हें अपने जड़ों से दूर ले जा रहे हैं।
आजा लौट के नादान परिंदे
बुला रही है तुम्हें अपनी डाली
अभी भी शाख पे करती है बसेरा
सोने की चिरैय्या हिम्मत वाली।
मिल जायेंगे तुम्हें विभिन्न फ़ल वहाँ
शबरी के बेर ना मिलेंगे तुम्हें कही
श्रद्धा सबुरी, प्रेम और शौर्य का संगम
भारत के अलावा और कही नहीं।