स्त्री
स्त्री
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सुबह सुबह
आंगन बुहारते ही
संग बुहार देती है कुविचार
चूल्हा जलाते ही
जला देती है दम्भ अभिमान
कंडे थापते ही
ज़ोर ज़ोर से थाप देती है
अपनी पीड़ा
थापी से कूटते कपड़ों संग
कूट देती है नित नई पलती इच्छाएं
सिल में पिसती चटनी संग
बट्टे से पीस देती है वैमनस्य
खेतों में काटती फसलों संग
काट देती है
गंधाते रिश्ते
गायों की घण्टी में
सुन लेती है भक्ति संगीत
रोटी की सोंधी खुशबू में
परोसती है प्यार
दीये की आरती में
डालती है
शुभ कामनाओं का तेल
सुलगती राख में
दफना देती है
अपनी मजबूरियां
चाहतें , दुखद अतीत
परिवार को परोसी थाली में
पा लेती है अपार आत्मसंतोष