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सफर

सफर

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पहुँचना मौत तक ही है तो

फिजूल सफर क्यों करे हम

क्यों ना मंजिल को

हासिल कर लिया जाए

वक्त से पहले

उम्र भी तो थक गई हो गई।


दौड़ते दौड़ते

साँसों को भी तो

थकान होती होगी

चलते चलते

कब तक यूँ ही खुद को

गुमराह करते रहेंगे हम।


पता है कि मंजिल मौत है

फिर भी कब तक

सफर करते रहेंगे हम

आँखों मे सपने दिल में

ख्वाहिशें लेकर,

आखिर कहाँ तक

चल पाएंगे हम।


किसी मुकाम पर छोड़ कर इन्हें,

फिर से तन्हा हो जाएंगे हम

हमारे काफ़िले में

शरीक हर एक हमसफर,

अकेला छोड़ हमें

चले जायेंगे बहुत दूर।


फिर चाहे वो उम्र हो या फिर साँसे

तब खुद को पूरी तरह से

अकेले पाएंगे हम

चारों तरफ कुछ नजर नहीं आएगा

फिर हल्की सी किसी के

कदमों की आहट सुनाई देगी।


और जैसे ही पिछे मुड़ के देखोगे

तो सामने नजर आएगी 'मौत'

फिर हम कुछ समय तक

बोखलाएंगे,घबरायेंगे,

मुड़ के पीछे फिर जब नजर जाएगी।


तो कोई रास्ता नजर नही आएगा

जो लेके जाए हमे जिंदगी की और

और फिर मौत हमें अपनी

और खींच लेगी जोर से।


और अपने कंधों पर बैठा कर

बहुत दूर लेकर जाएगी

बहुत दूर जहाँ से

लौटना नामुनकिन होगा !


फिर क्यो भला इस

नौबत से गुजर जाए हम

जब पता है की मंजिल मौत है

फिर क्योंबेवकूफों की तरह

सफर करते रहे हम..!


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