सोच में हूँ
सोच में हूँ
सोच में हूँ !
जीवन के स्थायी स्तम्भ का
क्या कुछ अता- पता है ?
धरातल पे 'पदचाप ' स्वरों में
ये कैसा तार छिड़ा है ?
सपनों के बेबाक कैनवास पर
ये किसने गीला रंग भरा है।
ओस से भीगी की धरती को
कैसे रश्मि का संग मिला है ?
सच आँखों से हो रहा ओझल,
मन मेरा हो रहा बोझिल ,
मुझमें ये दिगान्त
प्रवासी कौन खड़ा है ?
सोच में हूँ !
आह दृगों में लिए,
पाखी तेरे पंखों पर
किसने प्रश्नचिह्न जड़ा है ?
बचपन में खेला था खेल
'एक टांग' की लम्बी रेस
आज यथार्थ की बेलू पर
कोमल पाँव जल रहा है।
विप्लव के बादल !
एक मूसलाधार, बरस पड़
किस बात पर
इतना अड़ा है ?
सोच में हूँ !