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संबोधि के क्षण

संबोधि के क्षण

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इन आँखों से नित दिन गुनता,

रहता था जिसके सपने,

वो भी तो देखे इस जग को,

नित दिन आँखों से अपने।


कानों में जो प्यास जगी थी,

वाणी जिसकी सुनने को,

वो भी तो बेचैन रहा था,

अक्सर मुझसे मिलने को।


पर मैं अक्सर अपनों में,

नित दिन ही खोया रहता था,

दिन में तो चलता रहता,

सपनों में सोया रहता था।


जन्मो जन्मो से खुद को,

छलने से ज्ञात हुआ है क्या?

सच ही तो है कभी सत्य,

स्वप्नों में प्राप्त हुआ है क्या?


निराशुद्ध था पावन निर्मल, 

इसका बोध नहीं मुझको,

निज को ही जो ठगता जग में,

वो निर्बोध कहे किसको?


जन्मो की अब टूटी तन्द्रा,

मुझको ये संज्ञान हुआ,

प्राप्त नहीं कुछ भी किंचित,

केवल लुप्त अज्ञान हुआ।


कर्णों के जो पार बसा है,

बंद आँखें हैं जिसकी द्वार,

बिना नाद की बजती विणा,

वो ॐ है सृष्टि सार।  


पाने को कुछ बचा नहीं और ,

खोने को ना शेष रहा,

मैं जग में जग है मुझ में कि,

कुछ भी ना अवशेष रहा।


हुआ तिरोहित अहम भाव औ,

जाना कर्म ना कर्ता हूँ,

वो परम तत्व वो परम सत्व ,

सृष्टि व्यापत हूँ, द्रष्टा हूँ।



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