समर्पण
समर्पण
जलता दीपक हर मन भाया, दूर तमस कर प्रकाश फैलाया
प्रचंड आँधी से भी न घबराया, बन बैरी तिमिर हटाया
एक दिन पूछा, मैंने दीपक से इतना समर्पण कहाँ से लाया?
कैसे अपने को जला दिया, राख में खुद को मिला दिया
क्या पाया इस जग से तूने, अपनी हस्ती को मिटा दिया
खुद अंधेरे से लड़ता है तू , रोशन जग को करता है तू
ये कैसा भाव समर्पण ऐ दीपक मन में धरता है तू
कितना पावन है संदेश तेरा, मूर्ख जग समझ न पाया
लड़ाई लड़ी अस्तित्व की तूने, पापी जग फिर भी पराया
एक पल में जो था तेरा, पलक झपकते हाथ न आया
तेरे समर्पण भाव का ऋण कोई यहाँ चुका न पाया
इतना सुन दीपक चुप रह न पाया, अपने मन का वृतांत सुनाया
मन दुखता जब मैं बुझ जाता, काम न किसी के मैं आ पाता
खुशी खुशी मैं जलता हूँ, रोशन कितनो की दुनिया करता हूँ
यही सोच मन हर्षित होता है, जब आस का दीपक हर घर जलता है
आस पर ही है दुनिया कायम, आस पर विश्वास टिका है
मैं ही विश्वास जो हर दिल मैं रहता हूँ, प्रेम श्रद्धा बन बहता हूँ
अब समझ आया क्या तुमको, मैं दीपक हूँ क्यों जलता हूँ?
राह कठिन है मेरी फिर भी भाव समर्पण मैं कैसे रखता हूँ?