समर्पण
समर्पण


अब तुम्ही घेरे रहते हो
मेरे मन, इन्द्रियों को
हर पल हर क्षण
तुम्हें समर्पित
कर मैं
उन्मुक्त हो जाती हूँ
काल के बंधन से
समय से परे
मिलती रहती हूँ तुमसे
उन ब्रह्मांडों में
जहां के अधीश्वर तुम हो
सिर्फ तुम्ही से तरंगित मन में
धीरे धीरे मैं तबदील हो जाती हूँ
तुम में
यही मैं से तुम
बन जाने की क्रिया ही तो प्रेम है ll