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Pranshu Harshotpal

Abstract

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Pranshu Harshotpal

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शोर

शोर

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कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

कि लुधियानवी साहेब ने अच्छा किया

ये तब लिखा

आजकल ख्याल नहीं आते

मन भी नहीं छूता कोई अब

ना ही जन्म लेते हैं बार बार

सपनो की रानी का इंतज़ार भी नहीं

ना ही अब कोई चौदहवीं की चांद है

मुकद्दर का सिकंदर पैसा लिए बैठा है

प्रीत यहां की रीत अब नहीं

ओम शांति ओम अब दीवाने नहीं गाते

दादी अम्मा को अब हम नहीं मानते

भंवरे की गुंजन से डर लगता है

ना तो कहीं दूर कोई दिन ढलता है !!


अब कोई गुमनाम भी नहीं

सब स्क्रीन पर मिलते हैं

अब दम से पहले दोस्ती है टूटती

बरेली का बाज़ार अब रहा नहीं

लेकिन शाम वाकई अजीब है

मौसम अब बेईमान नहीं

ना सफर सुहाना रहा

दिल का ऐतबार अब रोज होता है

आने वाला पल अब कैद होता है

पल दो पल के शायर अब विलुप्त हैं

जिदंगी अब तुझसे नहीं, खुद से है नाराज़

बहार आए तो शायद फूल भी बरसे

एक शोर भी अब एक नगमा है

लकड़ी की काठी, अब टूट गई है

कागज़ की कश्ती भी डूब गई है !!


इसीलिए ये गाने, आजकल को पसंद नहीं आते

हक़ीक़त में, उन्हें ये समझ नहीं आते

बेचारे मेहरूम हैं, शब्दों के algorithm से

उनकी शोर-पसंद ज़िदंगी उनसे

जल्दी ही सवाल करेगी

शब्द कहां उड़ा ले गए !!

अल्फ़ाज़ कहां चुरा ले गए !!!


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