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Pranshu Harshotpal

Abstract

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Pranshu Harshotpal

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मां

मां

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यूं तो हमेशा रोकती आई मुझे तुम

चलती ट्रेन के गेट पर खड़े रहने से

जब तक ना हो जाऊं ओझल मैं नज़रों से

तुम खुद वहीं खड़ी रह जाती हो ।

मैं देखता हूं नज़रें चुराते तुम्हारी नम आंखों को

सुर्ख लाल , मुस्कुराते हुए तुम चली जाती हो

बाबा झांकते हैं बैठे खिड़की से

झुका कर सर विदा करते हुए

ट्रेन मुड़ती चली जाती तुम ठहर जाती हो

मैं दूर कहां जाता हूं तुमसे

ना, तुम दूर मुझसे जाती हो

जहन में कैद किए किस्से सारे

तुम लम्हा लम्हा याद आती हो


कुछ दिन मैं ज़मीन पे ही सोया करता हूं

मुझे एहसास हो की तुम लेटी हो ऊपर

रात में फोन इस्तमाल करूं तो डांटती हो

सुबह निन्हियाई आंखों में दुलारती हो

कुछ दिन तो तेह लगा कपड़े मैं

झाड़ू भी मारा करता हूं

अगरबत्ती की खुशबू में गुम हो जाऊं

तुम पूजा करती दिख जाती हो

जब तक ना हो जाऊं ओझल मैं नज़रों से

तुम वहीं खड़ी रह जाती हो ।

मैं दूर कहां जाता हूं तुमसे

ना, तुम दूर मुझसे जाती हो


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