सावन संग आशा
सावन संग आशा
सावन की बयार में
अठखेली मन है खाय रे।
झूम के बरखा रानी ने जो
पायल है छनकाई रे।।
मोर पपीहा गुंजन करते
पीहू- पीहू कुंजन में ।
नदियाँ कल-कल उफान भरे हैं
सागर से मिलन की धुन में ।।
तपती धरा की प्यास बुझ रही
वारि सुधा रसपान से ।
नव अंकुर अंगड़ाई ले रहे
पा पोषण प्राकृत दान से ।।
मेरा मन भी उल्लास भर रहा
रिम -झिम मधुर श्रवण से ।
क्या कह रही बरखा बूँद सुन रही
अन्त:करण में लगन से ।।
दे रहे सब अपना योगदान
चल सके ये प्राकृत चक्र अनवरत्।
हम भी कर लें अपना श्रमदान
पौधे रोपण कर आशाओं के सतत्।।
