सावन आया
सावन आया
सावन आया, सावन आया यह हम आप सब कह रहे हैं, पर सावन के आगमन का वास्तविक अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। कहाँ भिगोती हैं अब वो मन भिगोती सावनी फुहारें कहाँ दिखते हैं अब बागों, पेड़ों पर पड़े घर, घर द्वारे द्वारे पड़े झूले, कहाँ दिख रही है अब बहन बेटियों में मायके आने की वो पहले जैसी उत्कंठा या मायके वालों में बहन बेटियों के आगमन की पहले वाली प्रतीक्षा, अथवा हमजोली सखियों से मिलने की उद्गिनता कहाँ दिखती है आपस की वो हँसी ठिठोलियाँ। सब कुछ आधुनिकता की भेंट चढ़ता जा रहा है, तकनीकी युग और व्यस्तताओं की आड़ में सावन का भी वास्तविक आनंद खो रहा है, समय के साथ हमसे हमारा आत्मसंतोष भी अब कोसों- कोसों दूर भाग रहा है। हर तीज त्योहार की तरह सावन भी अब औपचारिकताओं की भेंट चढ़ता जा रहा है, हमें आपको ही नहीं हमारी संवेदनाओं को नव आइना दिखाने का उपक्रम कर रहा है। सावन आया, सावन आया! यह तो मैं भी कह रहा हूँ पर कितना आनंद हम महसूस कर पा रहे हैं, ईमानदारी से कहने की हिम्मत भी नहीं कर पा रहे हैं, तीज त्योहार कब आये और बीत गए पता ही नहीं चलते सावन की पीड़ा के स्वर भी हम अनदेखा कर रहे, पर सावन आया, सावन आया, बड़ा खुश हो रहे हैं औपचारिकताओं की अठखेलियों की आड़ में अपने आपको ही नहीं सावन को भी भरमा रहे हैं। सुधीर श्रीवास्तव
