साथ
साथ
एक जन था असहाय,
मैं देने चला अपना राय।
माहोल हमारे थे सम,
जो उत्पन्न करे गम।
मुझसे माहोल का हुआ सामना,
किंतु उसमे दिखा सिर्फ कामना।
जिंदगी को मैं अपनाया,
सीखों से जीवन बनाया।
लेकिन उसमे नही दिखा फर्क,
उससे भी बुरे उसके तर्क।
वह लोगों को नही मानता,
इसीलिए उससे दूर हुई जनता।
परंतु उसे चाहिए था साथ,
तभी मैंने बढ़ाया अपना हाथ।
वहीं से मेरा सोच पलटा,
जो होना था, हुआ ठीक उल्टा।
उसमे नही कोई बदलाव,
छोड़ा मुझमे एक प्रभाव।
वैसे ही रहे वो जनाब,
हुआ सिर्फ मेरा दिमाग खराब।
पागल सा सोच, पागल सा मन,
क्योंकि मेरे सोच मे था वह जन।
सुनकर, सोचकर, बोलना मेरा बल,
मैं सुनने को तैयार नही उस पल।
जनता से हटा मेरा मन,
पर बोलने हेतु चाहिए थे जन।
तभी एक मित्र दिया साथ,
मेरे लिए बढ़ाया अपना हाथ।
यह मित्र था बच्चा सा,
उसका मन था सच्चा सा।
जब मैं था असहाय,
उसने दिया अपना राय।
मैं समझा कि हमे पता हो राह,
पर सामने वाले मे चाहिए चाह।
ज्यादा नही सोचता मेरा मित्र,
इसीलिए उसका मन बचा पवित्र।
वह भी नही सोचता, किंतु अटल,
इसीलिए उसमे बचा सिर्फ जटल।
स्थितियाँ गगन के तरफ सिखाए,
दो लोग मुझे जमीन दिखाए।
