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Mahendra Singh Rathore

Abstract

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Mahendra Singh Rathore

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पथिक

पथिक

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मैं कौन हूं,

कहां जा रहा हूं,

मंज़िल मिले ना मिले,

गैरों में अपना

ढूंढ़ता जा रहा हूं।


उम्मीद कायम है, पर रास्ता

धूमिल नजर आता है,

पता नहीं क्यों,

हर कोई गैर ही नज़र आता है।


अरे हम तो निकले थे

मोहब्बत लुटाने को,

पर यहां खुद ही लूट बैठे।


जिन्हे सोचते हैं अपना,

गर सब गैर ही निकल जाएं,

तो होगा ही क्या खोने को,

लूट जाने को।


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