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परवरिश

परवरिश

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जो नहीं पलटते तुम एक़बार भी जब निकलते हो घरसे

जो नहीं आ जाती कानपर तेरी पायलों की छनछन दिन में एक भी बार

जो नहीं सुनाई पड़ती तेरी आवाज़- मुस्कुराती, खिलखिलाती, ज़िंदादिल

तो हैरान सा हो जाता था मैं तब भी और अब भी।


कितनी जल्दी बड़ी हो गयी हो तुम के तोड़ के जा सको ये पिंजरा

फिर भी एक़बार खड़को आज़माने के लिए एक दौड़ लगाके तो आओ

घुलमिल जाओ दोस्तों में यारों में, लेकिन एक वक़्त तो सही एक बार भी तो

बचाके रखने के लियें अपने एस रिश्ते की पहचान, मिला करो।


बेफ़िक्र, बेरहम, बे-निशान चाहत तो है ही जवानी और यौवन की देन

फिर भी संभालो ख़ुद को लाड़ली।

यहाँ शीशों पर खरोंच आयें तो आईने बदल दिये जाते हैं

माना कि नहीं होता एक भी सेव बिना कोई दाग़ के लेकिन

तुम क्यूँ सफ़र करना चाहतें हो एस भीड़ बाज़ार की?


माना कि हो गयी है बहुत सी ग़लतियाँ मेरे से अंजाने में

पर मैं बाप हूँ तुम्हारा, माँ तो नहीं !

परवरिश तेरी और भीतर हैरान मैं

कोई शिकवा नहीं और शिकायत भी नहीं !


तुमसे क्या कहना तुम तो जानतीं हो सब कुछ

कौन सा हाथ पकड़ना हैं और कौन सा छोड़ना

फिर भी दिल चाहता है की तुम रुको उसके लियें उस हद तक

जो पकड़ें तुम्हारा हाथ फिर कभी ना छोड़ने के लियें।


ईतना सब कुछ बयान किया फिर भी लगता है बाक़ी है अंदर और भी बहुत कुछ

शिकवा भी नहीं और शिकायत भी नहीं बस हैरान हो जाता हूँ

जब पलटते नहीं तुम एक बार भी जब निकलते हो घर से।


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