पृथ्वी की अस्मिता
पृथ्वी की अस्मिता
(पृथ्वी दिवस पर )
समय की अनादि-अनंत धारा
भूगोल की किताबों,
प्रगैतिहासिक पुस्तकों के ढेर में
फड़फड़ाते हजारों पन्ने
लाखों बरस का गुणा-भाग,
भजनफल, अनगिनत शून्य
विकास की अवधारणा
संसाधनों का हरसम्भव दोहन
नष्ट होते जलस्रोत।
प्राथमिक शाला की पाठ्यपुस्तकों से
लेकर देश के योजना आयोग तक
सम्भाषणों से लेकर आंदोलन तक
सुझावों उपायों की चीख चिल्लाहट।
मामला पर्यावरण को बचाने का नहीं,
अपने अपराधों को छिपाने का है।
समाज ने वर्षा को
इंचों या सेंटीमीटरों नापा।
काश उसने उसे बूँदें में मापा होता ।
पानी कम गिरता है? जी नहीं।
पानी तो करोड़ों बूँदें में गिरता है।
फिर ये बूँदों भी मामूली नहीं।
ये 'रजत बूँदें ' हमारा जीवन हैं ।
हमारा जीवन बह जाता है
और हम खुश होते हैं उसे बहता देख कर।
हमे विकसित करनी होंगी
पानी को सहेजने की एक ऐसी भव्य परंपरा
जो अबाध हो निष्कंटक हो।
जल संकट में नवीन और प्राचीन नहीं होता
प्रकृति पानी गिराने का तरीका अगर नहीं बदलती है
तो संग्रह के तरीके कैसे बदल सकते हैं?
पानी रोकने का तरीका फैशन नहीं है,
जो हर दो साल में बदला जाये।
कुंड, तालाब, नदियों, पोखरों आदि में
जल संग्रह होकर भूजल ऊपर उठता है।
जल, मिट्टी, हवा, जंगल,
बाँध, पहाड़ और शहर सभी के साथ
कोई-न-कोई समस्या उभरकर आई है।
आधुनिक विकास ने ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी है,
जहाँ संकट न हो।
एक सन्तुलित व्यवस्था,
जिसमें बाधा डालकर कुछ सुविधाएँ देकर,
जो असुविधाएँ दी हैं,
उसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।
करनी है हमें धरती की अस्मिता बहाली
हमारी धरती और उसका परिवेश स्वस्थ्य हो।
निरापद हो, उसकी अस्मिता बहाल हो
हमें, अच्छी सेहत, आजीविका की निरन्तरता
और आनन्द के अनगिनत अवसर मिलें
आओ हम सब मिलकर प्रयास करें ताकि
मानव जाति को विलुप्त होने से बचाया जा सके।