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Anita Purohit

Abstract

4.9  

Anita Purohit

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प्रलय के प्रलाप

प्रलय के प्रलाप

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प्रलय के प्रलाप वसंत के द्वार से 

आ पहुँचे हैं पतझड़ के सोपान तक 

पर्वों की अलस तलाश में 

उत्सवों की भीड़ के इस जंगल में।


विध्वंस के राग छेड़कर 

आहिस्ता-आहिस्ता क़दम बढ़ाते 

उस जीवंत बस्ती की ओर 

सुनाई देते हैं एक शोर की तरह।


अपने स्वर हर आँगन में बिखेरकर 

प्रलय के प्रलापों की अनुगूँज 

पतझड़ के अंतिम सोपान से गुज़रकर 

उतर आई है मेरे आँगन में भी।

 

द्वार पर उसने मेरे दस्तक दी है अभी 

मेरे आँगन के वसंत को 

पतझड़ में बदलने के लिए।


कसकर थामें हैं मैंने अपने द्वार 

प्रलय के उन प्रलापों को 

विध्वंस के राग गाने का 

रास्ता नहीं दूँगी मैं।

 

निरंतर तीव्र होते उसके प्रहारों के बीच 

आशा के अनंत आकाश में

निगाहें टिका दीं हैं मैंने।

 

उसके आवेगों के तक़ाज़े को 

क्या अकेले रोक पाऊँगी मैं ?

उसके आवेगों के तक़ाज़े को 

क्या अकेले रोक पाऊँगी मैं ?


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