फिर वहीं जाना है
फिर वहीं जाना है
बेवजह इतने समझदार हो गए हम वो नादानी ही अच्छी थी,
खुलकर जीते थे वो जिंदगी, हर मुस्कुराहट जहाँ सच्ची थी,
फिर से वही खुशियों का बसेरा बसाना हैं,
मुझे फिर से वहीं जाना हैं।
जब आँखों से आँसू के छलकते ही कितने ही दिल पिघल जाते थे,
जब परीयों की कहानीयाँ सुनते-सुनते दादी की गोद में सो जाते थे,
अमावस की रातों को फिर तारों से सजाना हैं,
मुझे फिर वहीं जाना हैं।
जब घर की दीवारें ईंटों से नहीं, बनी होती थी रिश्तों से,
जब यूँ ही अक्सर मुलाकात हो जाया करती थी फरिश्तों से,
याद आ रहा मुझे नीम की पेड़ की छाया में बसा आशियाना हैं,
मुझे फिर वहीं जाना हैं।
जहाँ माँ के आँख दिखाने से हम डर जाते थे,
बाबा की दो-चार बातें सुनकर हम सँवर जाते थे,
अपनी जिद़ पूरी ना होनेपर मुझे फिर से रुठ जाना हैं,
मुझे फिर वहीं जाना हैं।
अब याद आते हैं वो पल जो पल बिताए थे नादान बनकर,
इस भीड़भाड वाली दुनिया से अनजान रहकर,
अब सहम जाती हूँ जब समझ आता हैं कि बचपन एक अनकहा खजाना हैं,
मुझे फिर से नादान बनकर बचपन की दुनिया में जाना हैं।
