फिक्र
फिक्र
एक अरसा हुआ
वो नज़र नहीं आया !
शायद मर गया होगा !?
क्या फर्क पड़ता है ?
यूं भी मुझे
अब उसकी
ज़रूरत नहीं है ।
उसकी कमी अब
महसूस भी तो नहीं होती ।
न जाने कितने ही
ज़ख्मसीने पर उसके
मैंने ही किये थे
अपने खंजर से ;
न जाने कितनी ही बार
उसे दफ्न किया था
मगर वो...
मगर वो आ जाता
हर बार मेरे सामने,
मेरी राह में,
ज़ख्मी, लहूलुहान
और कहता,
रुक जा।
मत कर जो मुझे मंज़ूर नहीं।
खैर...
इस बार भी तो
वो नहीं आया था।
कुछ फिक्र भी लगी
मगर सोचता हूँ
क्या फर्क पड़ता है ?
ज़मीर ही तो था,
शायद मर गया होगा।
