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Devraj Bhraguvanshi Sharma

Abstract

4.6  

Devraj Bhraguvanshi Sharma

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पाबंदियों से भरी जिंदगी

पाबंदियों से भरी जिंदगी

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अब जीने की और चाह नहीं मुझे ,

पाबंदियों से घिरा जीवन जीना व्यर्थ लगता है मुझे,

इस पिंजरे से बाहर निकलना है मुझे,

दुनियां कितनी असीमित है यह देखनाा है मुझे,

क्या इतनाा बुरा है यह संसार या इतना अच्छा हूं मैं जो कैद करके रखा है मुझे,

अब तो बस इसी प्रश्न का उत्तर दे दे कोई मुुुझे,

जब छोटाा था तोो सोचता था कि पंख क्यों नहीं दिए मुझे,

अब दिए तो कैद कर लिया मुझे,

जीवन जीना व्यर्थ है,

जब तक जीवन पाबंद है।



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