नज़रों की नजर
नज़रों की नजर
झारों के के पर्दे के पीछे से निहारता हूं तुमको,
कोई शिकायत तो नहीं।
पर सामने आने को इतराता हूं शक है,
कहीं तुम वो हो भी या नहीं।
समा तो टूटा सा है और दिल बिखरा सा भी,
बस तुम होते हो तो कभी घबराता नहीं।
चाहे आए भूकंप का चोर या महामारी का गुंडा,
कभी तुम्हारे सोच से तो भटका नहीं।
काठी का घोड़ा समझ के खेलते हो मुझसे,
तुम्हारा ही हूं इस से कोई गिला शिकवा तो नहीं।
हमेशा से तो दिया है अपना मन का हक तुम्हें,
मौका मिलते ही फायदा उठा लेटे हो.. नहीं !
ये कुछ दीवारें बनवा कर सोचते हैं रोक लिए मुझे,
वहम है उनका हकीकत तो नहीं।
बादल की ऊंचाईयों से भी उपर है आशियाना तुम्हारा,
तुम्हें पाने की चाह रखना कहीं मेरी बेवकूफी तो नहीं।
माना है ईश्वर तुझे अच्छा तू ईश्वर ही तो है,
चाहे तू जितना भी छिपाले खुदको
मेरी इन नज़रों से बच सकता नहीं कभी नहीं।
