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कुमार संदीप

Tragedy

5.0  

कुमार संदीप

Tragedy

निर्धन हूँ साहब

निर्धन हूँ साहब

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निर्धन हूँ साहब!

है ख़्वाहिश मेरी भी

विद्यालय जाकर पढूं

गढूं सफलता के नव

आयाम पर

बंधा हूँ गरीबी की जंजीर से

निर्धन हूँ साहब !


बारिश की बूँदों को भी

खुशी का पैगाम समझता हूँ।

निर्धन हूँ साहब !

जब उड़ाता हूँ कागज़ की पतंगे

उस वक्त

अपने आप को खुश कर

लेता हूँ की,उड़ रहा हूँ मैं भी

आसमां में

निर्धन हूँ साहब !


फटे कपड़े पहनकर भी

खुश रह लेता हूँ

है ख़्वाहिश की

नयी पोशाक मैं भी पहनूं पर

ये मुमकिन हो कैसे?

निर्धन हूँ साहब !

जब भूख होती है तो

पी लेता हूँ दो घूँट नीर की

ताकि

कुछ समय तक भूख मिट सके

निर्धन हूँ साहब !


रहता हूँ खुले आसमां में

महफूज हमें भी ख़्वाहिश है की...

रहूं आलिशान बंगलों में

निर्धन हूँ साहब !

करवटें बदल-बदलकर

काटता हूँ रात

असहनीय दुःख से

हो ऐसी सुबह जो

बदले मेरे जीवन को

निर्धन हूँ साहब !


दुखों का अंबार लिए

चलता हूँ फिर भी

झूठी खुशी से

चेहरे पर मुस्कान

लाता हूँ कि

कोई भूखा न कहे

पागल न कहे

अशोभनीय नामों से

न पुकारे


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