Sameer Faridi

Abstract

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Sameer Faridi

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नादान

नादान

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इश्क़ सा रंगीन, कहीं आसमान देखा है।

उजड़े शहर में हमने, एक मकान देखा है।


हैं कह रहीं ये तितलियाँ क्या गुफ़्तगू करें,

फूलों में छुपकर बैठा शैतान देखा है।


मेरी आरज़ू यही, मैं तेरी आरज़ू बनूँ,

इससे हसी न दूसरा अंजाम देखा है।


बोली लगा दी दिल की बाज़ार-ए-इश्क़ में,

जबकि वफ़ा में अक्सर नुक्सान देखा है।


वो तैर गए दरिया, जिन्हें चलना नहीं आया,

समझदारों को इश्क़ में, नाकाम देखा है।


अपना जहाँ लुटाया, उनकी हंसी की खातिर,

हम जैसा जहाँ में कभी, नादान देखा है।


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