मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता
मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता


गाँव, कस्बा या कोई शहर नहीं होता।
आज यहाँ है तो कल वहाँ,
यारों मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता।
उम्मीदों के चिराग जलाये, रात-दिन घूमते हैं,
मंज़िल को याद कर पल-पल झूमते हैं।
क्योंकि सपनों का कोई शिखर नहीं होता।
यारों मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता।
कैसी भी हो बाधा अनवरत चलते हैं,
हर ज़ख्म को मरहम में बदलते हैं।
बुलंद हौसलों को किसी का डर नहीं होता।
यारों मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता।
सच के लिए जीवन जीते हैं,
जमाने के दिए कटु अनुभव पीते हैं।
लाखों की हो रिश्वत, फिर भी दृढ़ता पर
असर नहीं होता।
यारों मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता।
जिंदगी एक सराय है, कल सभी को जाना है,
कुछ पल की उदासी है, कुछ पल का तराना है।
रंक तो रंक है साथी, राजा भी यहाँ अमर नहीं होता।
यारों मुसाफ़िर का कोई घर नहीं होता।।