मुक़्क़दर
मुक़्क़दर
जुस्तजू आरज़ू ख्वाहिशें थीं कई
पर मुफलिसी में "अना " जैसी बन्दिशें थीं कई।
ख्वाब गर टूट कर बिखरते तो ग़म ना होता हमें
पर दोस्ती, इश्क़-ओ-वफ़ा के दामन में छुपी रंजिशें थीं कई।
परवाज़ मेरी सितारों को भी छू सकती थी ए दोस्त
पर राज़दारों के इरादों में छुपी साजिशें थीं कई।
उसकी नज़रों में ख़ुदा न सही, मसीहा तो मैं बन ही जाता जरूर
पर मुक़्क़दर की इन लकीरों में लिखी, नाकामियां थीं कई।
