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Manmeet Singh

Abstract

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Manmeet Singh

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मुक़्क़दर

मुक़्क़दर

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जुस्तजू आरज़ू ख्वाहिशें थीं कई

पर मुफलिसी में "अना " जैसी बन्दिशें थीं कई।


ख्वाब गर टूट कर बिखरते तो ग़म ना होता हमें

पर दोस्ती, इश्क़-ओ-वफ़ा के दामन में छुपी रंजिशें थीं कई।


परवाज़ मेरी सितारों को भी छू सकती थी ए दोस्त

पर राज़दारों के इरादों में छुपी साजिशें थीं कई।


उसकी नज़रों में ख़ुदा न सही, मसीहा तो मैं बन ही जाता जरूर

पर मुक़्क़दर की इन लकीरों में लिखी, नाकामियां थीं कई।


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