मत कहना, मैंने कहा नहीं !
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एक मंच चाहिए मुझे
बिल्कुल श्वेत !
श्वेत पोशाकों में पाठक ... कुछेक ही सही !
एक सुई गिरने की आवाज़ भी
कुछ कह जाए
वैसा शांत माहौल
और स्थिर श्रोता !
मैं अपने होने का एहसास पाना चाहती हूँ
मैं शरीर नहीं
एक रूहानी लकीर हूँ
यह बताना चाहती हूँ !
बन्द कर दो सारे दरवाज़े
हवा को सर पटकने दो
उसे समझने दो
कि जब रास्ते बंद कर दिए जाते हैं
तो कैसा लगता है,
कितनी चोट लगती है सर पटकते हुए
किस तरह एक पवित्र शीतल हवा
आँधी बन जाती है
और तोड़ देना चाहती है
दरवाज़े और घर
तिनके की तरह उड़ा देना चाहती है
भयभीत मनुष्यों को !
चाहती हूँ,
वह अपनी आँखों से देखे
कि जब खुद पर बन आती है
तब भयभीत मनुष्य
अपनी रक्षा में
सौ सौ जुगत लगाता है
सूक्तियों से अलग
हवा भी अपना वजूद समझ ले !
मैं हृदयविदारक स्वर में पूछना चाहती हूँ
तथाकथित अपनों से
समाज से
आसपास रोबोट हो गए चेहरों से
कि क्या सच में तुम इतने व्यस्त हो गए हो
कि किसी सामान्य जीव की असामान्यता के समक्ष
खड़े होने का समय नहीं तुम्हारे पास !
या तुम अपनी जरूरतों में
अपनी आधुनिकता में
अपनी तरक्की में
पाई पाई जोड़
सबसे आगे निकलने की होड़ में
इतने स्वार्थी
हो चुके हो
कि एहसासों की कीमत नहीं रही !
तुमने प्रतिस्पर्धा का
दाग धब्बोंवाला जामा पहन लिया है
बड़ी तेजी से
अपने बच्चों को पहनाते जा रहे हो !
तुम उन्हें सुरक्षा नहीं दे रहे
तुम उन्हें मशीन बनाते जा रहे हो।
कभी गौर किया है
कि उनके खड़े होने का
हँसने का
बड़ों से मिलने का अंदाज़ बदल गया है !
तुमने उनके आगे
कोई वर्जना रखी ही नहीं
सबकुछ परोस दिया है !
नशे की हालत में
या मोबाइल में डूबे हुए
तुम उन्हें कौन सी दुनिया दे रहे हो ?
क्या सच में उन्हें कोई और गुमराह कर रहा है ?
और यदि कर ही रहा
तो क्या तुम इतने लाचार हो !
घर !
तुम्हारे लिए अब घर नहीं रहा !
तुम सिर्फ विवशता की बात करते हो !
जबकि तुम
ज़िन्दगी के सारे रंग भोग लेना चाहते हो
भले ही घर बदरंग हो जाए !
मैं रूहानी लकीर
सबके पास से गुजरती हूँ
जानना चाहती हूँ
वे किस वक़्त की तलाश में
सड़कों पर भटक रहे हैं
क्या सच में वक़्त साथ देगा ?
कड़वा सच तो यह है
कि वक़्त अब तुम्हें तलाश रहा है ...
हाँ मेरी धमनियों में वह बह रहा है
मुझे बनाकर माध्यम
कह रहा है - बहुत कुछ
कहना चाहता है,
बहुत कुछ !
फिर मत कहना,
समय रहते ... मैंने कहा नहीं !