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Bhavesh Lokhande

Abstract Others

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Bhavesh Lokhande

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मरे हुए लोग

मरे हुए लोग

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मरे हुए लोग

ज़िन्दा नहीं होते

वह सिर्फ ज़िन्दा

होने का नाटक करते रहते है ताउम्र

उनकी लाशें उठती हैं, अपने फ़र्ज निभाती है

और सो जाती है कब्र जैसे बिस्तरों पर

गर्म रजाई में छुपाने की कोशिश करते

ये ठन्डे पड़े हुए जिस्म

सोने की कोशिश में

दम तोड़ने की राह देखते हुए


मरे हुए लोगों पर 

असर नहीं होता

चीखने चिल्लाने का

रोते हुए बच्चों की सिसकियों का

मरे हुए लोग बस

अपने आप में घुटते रहते हैं

उनको जला दो या दफ़ना दो

या कोई तपती भट्टी में फेंक दो

मरे हुए लोग

आवाज़ नहीं करते

मरे हुए लोग

एहतियात नहीं करते

बस पड़े रहते है एक कोने में

दुनिया की बेरुखी अपने

आप में समेटे हुए


मरे हुए लोगों ने परिजनों के

खून तो बहुत देखे 

बेटी बहु माँओं की इज़्ज़त

नीलाम होते हुई देखी

ज़िंदा नौजवानों के सर

कटे हुए मिट्टी से सने देखे

बच्चों की अंतड़िया लटकती हुई

सांस छूटी हुईं लाशें देखी

घोड़ी चढ़े दूल्हे की लाश

बारात ले जाते हुए देखी

मरे हुए लोग इस के आदि है

ये इन्कलाब नहीं करते 

बस मंदिरों की सीढ़ियां चढ़ते है

जहाँ से ये कभी लात मार भगाये जाते थे


मरे हुए लोग अपने महलों से

उतरते नहीं किसी शोरगुल से

आँख बंद कर लेते है

कान मे सरका देते हैं रूई 

ताकि उन तक पहुँच ही नही पाये

उन सभी कि आवाज़े और वो दृश्य

जिससे वास्तविकता से पाला पड़े

और फिर बच्चे पूछने लगेंगे अचंभे से सवाल

फिर कैसे देंगे ये जवाब के

इन सब कि जड़

हम मरे हुए लोग है



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