मंज़िल
मंज़िल
जीवन के इस पड़ाव पर,
उम्र के इस बहाव में,
कितने सारे प्रश्न के उत्तर नहीं पाता हूँ।
अनजानी-बेगानी राहों पर,
मैं, बस चलता जाता हूँ,
मैं, बस चलता जाता हूँ !
कुछ अनसुलझे हालात लिए,
जिंदगी से कुछ सौगात लिए,
कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ लिए,
कुछ बिगड़े हुए सुर लिए,
कुछ बिगड़े हुए साज़ लिए,
कुछ टूटे-बिखड़े ख्वाब लिए,
कुछ अनसमझे-अधूरे ज़ज्बात लिए,
मिला ना मुझको अंजाम,
उस अंज़ाम का आगाज़ लिए,
मैं, बस चलता ही गया,
मैं, बस चलता ही गया।
अपनी मंज़िल को ढ़ूँढने,
अपने सपनों को हक़ीकत में पिरोने,
टूटे हुए सपनो को जोड़ने,
जिंदगी के अधूरेपन को भरने,
बस चलता ही गया,
मैं, बस चलता ही गया,
मैं, बस चलता हीं गया,
अकेले-अनजान राहों पर,
सुनसान राहों पर,
अनकहे-अनसुलझे पहलू को सुलझाने,
अपने मंज़िल को पाने,
चलता हीं गया....
मैं बस चलता हीं गया...
आज भी मुझे चाहत है
अपने सपनों की,
मुझे ज़रूरत है, मेरे अपनों की,
आज भी मैं जा रहा हूँ,
अपने सपनों की खोज में,
अपने-अपनों की खोज में,
ना जाने किस मोड़ पर,
अपने मिल जाए,
ना जाने किस मोड़ पर,
मेरे सारे सपने पूरे हो जाए,
आज भी मैं जी रहा हूँ,
अपने सपनो को हक़ीकत में
पिरोनें की कोशिश कर रहा हूँ !
अपने सपनों को हक़ीकत में
पिरोनें की कोशिश कर रहा हूँ !