~मंजिल ए हमसफ़र ~
~मंजिल ए हमसफ़र ~
एक लम्हाँ ही काफी है हवा का,
शमाऐं बुझ जाती हैं उसे बचाना होता है।
दावे तो बहुत हैं इस ज़बानी जहाँ के,
लेकिन जुनूँ के काम करके दिखाना होता है।
और इस शहर के हम वह अज़नबी ठहरे ,
जो रोज ख्वाब संजोते और सफर पर जाना होता है।
क्यूँकि फिर लोग याद नहीं आते सिवाय मंजिल के,
बीते दिनों की याद को भुलाना होता है तब
संघर्ष कर संघर्ष कर हर तरफ यह गुंजन सुहाना होता है।
बस एक उम्मीद की मशाल को जलाना होता है,
क्यूँकि हर एक शख्स का कोई ठिकाना होता है।