मजदूर
मजदूर


जमाने भर कौन याद रखेगा,
जिन्दा है मगर,
जिन्दगी है धुआँ-धुआँ ।
न खाने को रोटी है ,
न पीने को पानी।
छोड़ के आशियाना अपना,
लौट घरौंदों में जा रहा।
जमाने भर कौन याद रखेगा।
जिन्दा हैं मगर,
जिन्दगी है धुआँ-धुआँ।
कंधों पर बूढ़ी माँ,
हाथ में झोला लिए।
पैरों में छालों की खड़ाऊं,
तेज धूप की चादर ओढ़े।
मजबूर है वो मजदूर,
ख़ाली पेट चला जा रहा ।
जमाने भर कौन याद रखेगा ।
जिन्दा है मगर ,
जिन्दगी है धुआँ -धुआँ।
संवेदन हीन बना मानव,
जो है रीढ़ की हड्डी देश की।
वही दर दर भटक रहा,
भूख प्यास से तड़प रहे।
कुछ यमराज ने गले लगाये,
कुछ यमराज के मुंह से बचकर
चला जा रहा पग-पग।
जमाने भर कौन याद रखेगा।
जिन्दा है मगर ,
जिन्दगी है धुआँ धुआँ।