महामारी की कहानी धरती की जुबानी
महामारी की कहानी धरती की जुबानी


बचपन में मां ने धरती की सुनाई कहानी,
जो है मुझे याद अब मुंह जुबानी,
सहनशीलता की चरम सीमा,
वात्सल्य में इसके है गरिमा।
गलती पर लगाई थी मां ने जो मार,
धरती की फटकार से इंसा गया हार।
समंदर झरने पहाड़ नदियां,
है ये सब का आशियाना।
परवरिश में बीती हैं सदियां,
नहीं है हमारा कहीं और ठिकाना।
मां के आगे हुए हैं नतमस्तक,
फिर क्यूं किया धरती पर जुल्म अब तक।
बनना धैर्यवान धरा के जैसे,
बांटना ममता सभी को तुम ऐसे।
त्याग की मूरत बन सबको जीना सिखाती,
मुश्किलों में भी हँसकर सबको ये बुलाती।
था सिखा
या मां ने वीर बनना,
महामारी के आगे घुटने क्यों है टेकना।
कुदरत के विभिन्न रूपों से हमें मिलाती,
हर पल मुसाफिरों को रास्ता दिखाती।
पूर्ण नभ में नहीं है इसका कोई सानी,
कहते हैं जग में यह सभी ज्ञानी।
परेशान नहीं करना कहा था मां ने,
कोरोना का संकट इसलिए झेला इंसानियत ने।
अहम वश हमने बात यह नहीं मानी,
पूरे ब्रह्मांड की वसुंधरा है रानी।
विवश ना करो इसे रौद्ररूप दिखाने को ,
सीखना है बहुत कुछ ज़माने को।
गलतियों से सबक लेना था मां की किताब में,
चलो खूब ख़ुशियों के फूल खिलाएं जहां में।