मेरी पहली कविता
मेरी पहली कविता
वो दिन भी क्या दिन थे
जब घंटो बीत जाते थे
तुम्हें निहारने के इन्तजार में
और फिर तुम निकला करती थी
यूँ सज सवंर कर।
की हम तुममे ही खोये रहते थे
तुम्हें देखकर तुम्हें सोचकर
हम गाना गाते थे
अपने ही बनाये हुए ख्यालों से
जाने कितने गीत
अपने आप बन जाते थे।
तुम्हारे सामने खुद को
गंवार पाते थे
किन्तु प्यार सच्चा था
इसलिए ज्यादा न घबराते थे
इतने दूर से तुम्हे देखते थे
किन्तु उस मौके को भी
कभी हम न गंवाते थे
फिर तुम कभी कभी
रिमझिम करती
मेरे नजदीक आ जाती थीं
और ऐसी गुदगुदी मचा देती थी
कि फिर ख्यालों में
दिनों खोये रहते थे
कि अब तुम कब मिलोगी
वो दिन भी क्या दिन थे
फिर आज उनको पाने का
जी करता है
फिर से वहीं लौट जाने को।