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मेरी कविता मुझसे बोल पड़ी

मेरी कविता मुझसे बोल पड़ी

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मैं लेटा था ...मैं सोया था

मेरी आँखें कुछ क्षण बंद हुई !

कभी उस करवट कभी इस करवट,

मेरी निंद्रा मुझसे रूठ गई !!

निरंतर मेरी इन क्रियाओं से,

मुझे कुछ क्षण अपनी आस जगी !

धीरे -धीरे मंद पवन के झोके से,

मेरी आँखों में नींद जगी !!

पर मुझे कहाँ सोने देती मेरी 'कविता '

आ गयी स्वप्न में मुझे जगाने !

बोल पड़ी ..मायूस खड़ी ...

"क्यों भूल गए हो मेरे फसाने ??"

"कभी तो मेरे श्रृंगारों को ,

अपने छंदों से सजाते थे !

कभी हास्य और परिहास से ,

मुझे प्रतिदिन यूँ ही हंसाते थे !!

यदा कदा आपकी कलम के वायुयान ,

में बैठकर आकाश को चूम लेती थी !

इधर उधर से दूर ...बहुत ..दूर ,

सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण कर लेती थी !!

राजनीति का इन्द्रधनुष ,

सात रंगों से आप ही सजाया करते थे !

कटु सत्य, आलोचना और प्रसंशा,

के पाठों को आप ही पढ़ाया करते थे !!

आज आप निष्ठुर ,कुंठित, अकर्मण्य,

क्यों बनकर यहाँ पर सो रहे ?

प्रेरणा जो आपकी थी प्रखर,

उसको मानो आज क्यों यूँ खो रहे ??

कलम को गांडीव में यूँ ना रखें,

आपको बनना है धनुर्धर... लिखते रहें !

देखिये मैं द्रोपदी हूँ ..आपकी ,

रक्षा मेरी आजन्म आप करते रहें !!


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