मेरा सच
मेरा सच
कैसे मैं लिखूँ सच का सारांश
मेरा सच मुझ पर है दोष मढे़
झूठ लिखूँ तो भी कैसे लिखूँ
मेरा अन्तर्मन है राह अढे़।
जिस पथ पर चलना था अल्हड़
उस पुण्य मार्ग से भटक गया
जो सही दिशा मे था अड़चन
उस पत्थर पर ही मैं अटक गया।
उसी पत्थर को फिर अग्र बिछा
निज कर्तव्यों की चाल चली
कुछ चल पाया कुछ औंधा गिरा
नहीं किस्मत आगे दाल गली।
उसी पत्थर के ही घर्षण से
मेरे सच का खाका निर्मित है
जिसमें संतुष्टि है लेष मात्र
रंज-ओ-ग़म अथाह अमित है।
संचित सच मेरे को मुझको
अब तो पावन करना होगा
मेरे कर्मलेख के पतझड़़ को
अब तो सावन करना होगा।
