मेरा डर...टुकड़े
मेरा डर...टुकड़े
खुद को,
टुकड़े-टुकड़े पाता हूँ।
जब मैं...
अपनों से ही,
बांट दिया जाता हूँ।
अनजान चीखों को,
दिल में दबा जाता हूँ।
मैं अपने ही कत्ल का,
इल्ज़ाम लिए जाता हूँ।
कितनी मिन्नतों,
फरियादों की गुहार लिए जाता हूँ।
अपने दामन पे,
अपने ही खून के,
दाग लिए जाता हूँ।
उस तैरती,
तस्वीर पर
आंसू बहा के रह जाता हूँ।
खुद को,
टुकड़े टुकड़े पाता हूँ।
अपने ही खून से,
अपने हाथ रंगे जाता हूँ।
हर रोज...!
मैं किस की मौत मरे जाता हूँ।
खुद को,
टुकड़े-टुकड़े पाता हूँ।
किस जख्म को रोज,
कुरेदे जाता हूँ।
किन कसमों को,
मैं रोज लिए जाता हूँ।
खुद को,
टुकड़े -टुकड़े पाता हूँ।
अपनी पहचान को,
कहाँ दरकिनार कर जाता हूँ।
जिंदगी का कैसे,
मज़ाक बन जाता हूँ।
खुद को,
टुकड़े टुकड़े पाता हूँ।
