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Kavita Yadav

Abstract

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Kavita Yadav

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मौन की मुठ्ठी में बधा आँगन....

मौन की मुठ्ठी में बधा आँगन....

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घर आंगन कितना सुहाता था मन,

आज शहरों में एक बालकनी में सिमट रह जाता तन।

जिंदगी खुश हैं मुझको नहीं लगता,

शायद रह जाये तो अब मन को फर्क नहीं पड़ता।।

आज मन मे को कोलाहल सी हुई,

जैसे कोई समृति पुनः जागृत हुई।

कितना सुकून गांव के उस आंगन में,

आज हजार रुपये कमाने के बाद भी

खुश नही रह पाते आनन फानन में।

क्या खूब थे वो दिन,

आज साथ रहकर भी रहते हैं बेदीन।

आंगन में वो गौरेया, अन्य पक्षियों का आकर बैठना,

और आज सिर्फ बालकनी के नाम पर कुछ पौधों को सेकना।

दौड़ कल भी थी पर सुकून था उस आंगन में,

आज भी दौड़ वही है पर सुकून न रहा अब इन चार दीवारो में।

ये कौन सी दौड़ हैं जो दूर तक ले आयी हैं,

जिसने मौत से भी बद्दतर अब ये जिंदगी बनाई है।

सूर्य की किरणें तो है अब वो चमक कहाँ से लाये,

पंक्षी तो आते हैं पर उनकी चंचलता कहा से लाये।

जीवन समस्याओं से जूझती गुत्थी सी हुई ,

कठिन उपन्यास 'निर्मला' जैसे मुंशी की हुई।



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