मैंने, बादलों से दान सीखा है
मैंने, बादलों से दान सीखा है
मैंने, बादलों से
दान सीखा है...
तुम जब सूखे में
छांव की आडोस ढूंढा करते हो।
वो,
वो बूंदें इक्कठा किया करते हैं।
तुम जब तापमान को
गिन गिन कर कोसा करते हो।
वो,
वो बूंदों को बचाया करते हैं।
तुम जब आपदा मान कर
सूखे में झुलसते रहते हो।
वो,
वो बूंदों की डोली सजाया करते हैं।
सूखे की चोट तो उनको भी लगती होगी।
फिर भी,
वो बूंदों को अपने में समेटे हुए
आगे बढ़ते रहते हैं।
बूंद बूंद, बादल बादल
मानो, पानी के कुंभ बनाते घूमते हैं।
इस अचल आकाश में,
उत्सव किया करते हैं।
जैसे बादलों की टोली जा रही हो
और बूंदें भी ठाठ से,
उनके संग सम्मिलित हो रहें हो।
वो उनका पानी इक्कठा करना,
वो उनका अनाहत गड़गड़ाना।
तुम्हें आगाह करना,
और बारिश की बौछार में चुपचाप छिप जाना।
सिखाता हैं जीने का सलीका कहीं
तुम्हारे धान को लहलहाने,
बूंदों की डोली विदा करते करते,
कई बादल यूं ही, मिट जाया करते हैं।
फिर उजागर होकर, खिलखिलाते
इस अखंड आकाश में,
फिर डोली सजाया करते हैं,
फिर उत्सव मनाया करते हैं।
हां,
मैंने, बादलों से
दान सीखा है...
