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Kavita Panot

Abstract

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Kavita Panot

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मैं लिखती हूँ क्योंकि

मैं लिखती हूँ क्योंकि

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लिखती हूँ 

खुद को जिंदा रखने के लिए,

कविता हूँ मैं।


नित रोज नई,

खिलती पेड़ों की कोंपल सी,

पन्नों पर फूट जाती हूँ।

यूँ तो अनमोल हूँ मैं लेकिन,

प्यार और भावों के बहाव से,

दुनियाँ के बाजारों में,

 बिन मोल बिक जाती हूँ।


कभी रद्दी बन जाती ,

अखबारों में,

कभी छप जाती,

दिल की दीवारों में।


मैं भावों की सरिता हूँ,

जीवन के इस अनजान सफ़र में,

बस ख़यालों के समंदर में,

यूँ ही गोते खाती हूँ।


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