मानवता व अपराध
मानवता व अपराध
घायल होती बेटी को देख देख भारत माता रोती है।
अपने दामन को वो अपने अश्को से धोती है।
चंद पुरुष अपने कर्मों से पौरुष पर पंक लगा बैठे
मानवता की संवेदना पर तुम विष का डंक लगा बैठे
कब तक तुम नोंचोगे फुलवारी की कलियों को
कब तक तुम लूटोगे हमारी घर की वैदेहीयों को
तुम अपने कुकर्मों से अपनी माँ की कोक लजा बैठे
तुम अपने मानव जीवन की मौत की सेज सजा बैठे
तुम जाति धर्म के मद्य में इंसानी हद को भूल गये
तुम अन्धे होकर के हवस के झूले में ही झूल गये
देश में अपराध के स्थानों के सिर्फ नाम बदले जाते हैं
मगर हर दम हम नये किरदारों से अपराध वही पाते हैं
हमको बेटी की वो दर्द भरी चीख सुनाई देती हैं
बेटियाँ घर सें निकलने में भयभीत दिखाई देती हैं
प्रशासन भी न जाने क्यो कार्यवाही में लेट लतीफी करता है
जाने क्यों हमको अपराधियों से उनका गठबंधन सा लगता है
अब इन अपराधीयों से आमने सामने की जंग करो
बलात्कार के अपराध में सीधे फांसी का प्रबंध करो
सुनों दरिंदो क्यो तुम अपने कर्मों से पुरुषों को शंकित कर बैठे
साथ ही साथ में तुम कुल व जाति को भी कलंकित कर बैठे
मैं समाज में मानवता अलख जगाने आया हूँ
मैं कविता के छंदो को अंगार बनाने आया हूँ!