लम्हें
लम्हें


देखा है दरख्त झड़ते हुए हर साल, सालोंसाल
और हम उसे खोने का क्या ग़म करें
जो हमारा था ही नहीं?
मना लिया था खुदको पर ये
कमबख़्त दिल तलाशता
आज भी उसी शिद्दत से है।
कभी रुबरू हो भी जाते हो
कागज पर उतारे चंद लब्जों में,
बस ऐब इस बात का है के,
ना उन लब्जों में क़ैद लम्हा थमता है
और ना उन लम्हों में बंद यादें।