कविता - जीत
कविता - जीत
जीत मिली थी,मुझे अपने जीत जिद से
पहचान मिली थी,मुझे अपने संघर्ष से
हिम्मत टूटी थीं, पर गिरी नहीं मैं
हरदम रखी अपने हौसले को बुलंद
गिरकर उठी मैं, चलकर संभली
ठोकर खाकर समझी की -
जीत चुकी हूं अपने हार से
बढ़ चुकी है,कदम मेरी जीत की ओर
नहीं रुकना है,मुझे अब लोगों की बाते सुनकर
कर दिखाना है,कुछ अपने दम पर
मिला है, ताना मुझे
सह ली हूँ सारे दर्द मैंने
जिद्दी बनके हासिल कर ली
सारे ख़्वाब मैंने
और देखो बढ़ चली मेरी कदम जीत की ओर।