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कवि प्रवीण कुमार गुमनाम

कवि प्रवीण कुमार गुमनाम

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न जाने कवियों की भीड़ में

मेरा प्रिय कहाँँ खो गया ?

जो मेरे साथ होकर भी

मुझसे दूर हो गया !


दिन रात मैं अनजानी गलियों में

बेगाने शहरों में

उसको तलाशता हूँ

मगर अब तक उससे

दीदार न हुआ !


कैसे उसका दिल

मिलने को बेकरार न हुआ ?

फासले इतने भी क्यों ओ ज़ालिम !

जो मेरे आग़ोश में

गिरफ्तार न हुआ !


तेरे बिना मेरा वजूद ही क्या है ?

शायद मिले भी तो

साथ निभाने को तैयार न हुआ !


कितने मधुमास बीत गये

प्रिय की तलाश में

हमने तो वफ़ाएँ की

ओ बेवफ़ा !


पर लगता है

तुमने भुला दिया

भुलाना ही था तो

दिया ही क्यों ये नाम ?


सितारों की महफ़िल में

बदनाम हो गये !

लोग तो आफ़ताब

कभी चाँद समझने लगते

मगर हम नाम लिखकर भी

गुमनाम हो गए...!


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