क्षणिक संवेदनाएं
क्षणिक संवेदनाएं
मेरी संवेदनाओं का सैलाब,
और, मेरे भीतर का आक्रोश,
जागता है, हर रोज
पर अफसोस,
कि सुबह मेरे उठने के घंटों बाद
और, शाम होते होते
बेसुध हो, नशे में,
लुढ़क जाता है चारपाई के नीचे,
मेरे सोने से घंटों पहले ही !
दरअसल,
ये जो 'मैं' हूँ
यही 'तुम' भी हो,
तो आओ, मिलकर,
भीड़ के शिकार के साथ
एक और सेल्फी खिंचाते हैं,
तो आओ,
सड़क पर तड़पते बूढ़े को छोड़,
सीरिया पर आसूँ बहाते हैं,
तो आओ, कलम, कागज पर घिस के,
सामूहिक चेतना जगाते हैं !