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Sangeeta Mehra

Abstract

4  

Sangeeta Mehra

Abstract

कृतिका

कृतिका

2 mins
389


 1. नभ में छाए काले मेघ

नभ में छाए काले मेघ.

झूमती धरती इसको देख। 

बिन नीर कि प्यासी धर्राती इस धरा पर,

नाचते गाते भर आशाओं में अनेक।


फसलें लहराएंगी अपनी हरी आँचल,

और बागों में आएगी नई जान।

देखकर रंग-बिरंगी मधुर मलंग को,

झाजाएगी प्यारी सी मुस्कान।


हरियाली, खुशहाली

सुखहाली आएगी।

जो बरसो से संजोया हुआ सपना है किसी का,

वो भी अब पूरी हो जाएगी।


जाने कब से सूखी, तपी, चपटी माटी पर, 

मूसलाधार बरसो ऐ उड़ती काली पानी का भेष।

वज्रपात और चमकती गर्जना से दो अपना आगमन संदेश। 

देर न करो अब हे अमरेश!

नभ में छाए काले मेघ।


2. नारी से ही


नारी से ही मान है। 

नारी ही सम्मान है। 

एक पल ठहर कर 

तू रुक और देख जरा! 

नारी से सारा ये जहान है।


नारी से ही सफ़र तेरा,

नारी ही डगर तेरा,

तू झुक जरा,

तू पूज जरा!

नारी से ही हुआ है,

उदगार तेरा। 


नारी से ही हर्ष और उल्लास तेरा।

और नारी से ही अत्याचार और अहंकार तेरा.

न भूल जरा, सुन तू मूर्ख जरा!

पारियों का हुआ है संहार सदा।


3.बेसहारा

धुंधली पड़ने लगी नज़रें,

जिसमें एक ऐनक भी गवारा नहीं है.

कांपती हाथों में लाठी तो है,

पर बेटे का सहारा नहीं हैं.


वो बात कुछ और थी जवानी की,

जब फावड़ा पकड़ खेतों पर काम किया करता था.

और अपने एकलौतें बेटे पर अपना

सारा सुख निछावर किया करता था.


पढ़ा-लिखाकर बना दिया अफसर,

जो बरसों से विदेश में रहता है.

न चिंता, न ख्याल कुछ

अपने इस बाबा का अब करता है.


बहु-रानी भी है शहर की और

पोता-पोती भी है सुना है.

पर एक बार आकर पास में मेरे

खबर तूने कब करा है?


भइया! अब मनियाडर के दो सौ भी 

तू ही रख,

पैसे निकालने वाली दफ्तर भी

 दूर बना है।


मां बेचारी तो राह देखते,

पहले ही चल बसी....!

दूर चलने से अब दुखती मेरी टांगें बड़ा हैं.


क्या इसी दिन के लिए तूझे 

पाल-पोस कर बड़ा किया है?

जिन नन्हे हाथों को पकड़

कभी चलना सिखाया था,

आज वो इन कांपती हुई हाथों का 

सहारा भी नहीं बन पाता है.


कोई बात नहीं बेटा मेरे,

समय का पहिया घूमकर वापिस

 उसी जगह पर लौटकर आता है।


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