कलम
कलम
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दि लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग ऊसी विधाता ने,
कर दी मेरे अधीन कलम
मेरा धन स्वाधीन कलम।
रस -गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्यज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है।
संग्राम-क्रांति का
बिगुल यही है,
यही प्यार की बिन कलम
मेरा धन स्वाधिन कलम।
बस मेरे पास हदय-भर है
यह भी जग को न्यौछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्यांड विषय भर है।
रँगती चलती संसार-पटी,
यही सपनों की रंगीन
कलम मेरा धन है स्वाधीन।
लिखता हूँ अपनी मर्जी़ से
बचता हूँ क़ैंची -दजी़ से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन .खुदग़जी से।
कोई छेडे़ तो तन जाती,
बन जाती है संगीत कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम।
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों मेंं रह लेता।
हर दिल पर झुकती चली मगर,
आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम।