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Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Inspirational

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Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Inspirational

कलियुग और रावण

कलियुग और रावण

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जग में अंधेरा 

मन में अंधेरा 

अंधेरे का साम्राज्य 

राम विजय का 

विजय पर्व 

विशेष खास।।              


लक्षण जैसा भाई 

मर्यादा का मान 

रावण  छल प्रपंच 

द्वेष दम्भ की 

काया मात्र।।


हारा युग पंडित

रावण विद्वान

अहंकार स्वाभिमान 

संघार!!


रावण दहन 

अहंकार अभिमान 

ज्ञान का नाश त्रेता से 

पीढ़ी दर पीढ़ी 

रावण मरता जलता 

कहता सुनो 

कलयुग मानव 

मेरी बात 

बांध लो गांठ।।              


कलयुग मानवता 

मन में जगता नहीं 

जलता नहीं सत्य 

सत्यार्थ  प्रकाश!!


रावण का जलना 

विकृत अन्याय 

अत्याचार द्वेष दंभ 

घृणा के भस्म से 

उठता गुब्बार।।         


वर्ष दर वर्ष रावण का

मरना जलना मर्यादा 

मानवता मूल्य प्रकाश 

फिर भी जग में 

जग मन में 

अंधेरा अहंकार!!


रावण भी मरते -मरते 

जलते- जलते 

ऊब चुका है 

करता खोखले 

मर्यादा  राम का 

परिहास!!


रावण हर वर्ष 

मरता जलता 

नहीं जलता मरता

 भय भ्रष्टाचार 

साम्राज्य!!                         


कहाँ गयी वो 

मर्यादा मानवता 

जो आनी थी रावण 

मरने जलने के बाद? 


रावण ने तो 

बस एक जानकी 

हरण किया 

अब हर दिन 

जानकी मांग रही 

जीवन इज़्ज़त 

रक्षा प्राण !!


युगों युगों से जलते

मरते रावण कि 

गूँज रही हैअट्टहास।।         


रावण का अट्टहास

युग से ही सवाल

मैं अत्याचारी अन्यायी 

अहंकारी अभिमानी 

दिया चुनौती 

अपने युग को 

अपने मूल्यों 

उद्देश्यों में।।


ब्रह्मांड सत्य सारथी 

मर्यादा पुरुषोत्तम 

पुरुषार्थ  ने 

युद्ध किया मुझसे 

युग परिवर्तन 

प्रकाश के 

सन्दर्भ में!!


रावण जलते मरते 

कहता कलयुग से 

मेरे मरने से अहंकार 

अभिमान घृणा क्रोध का 

नाश मेरे जलते

प्रकाश से जग अंधेरा 

करो सर्वनाश।।                       


रावण मेरा जलना 

मरना युग धर्म 

मानवता का संवर्धन 

संरक्षण होगा पथ युग का

परम प्रकाश।।


मर्यादा का राम 

युग राष्ट्र में होगा 

प्रमाणित प्रमाण !!


भय रहित रहो 

विशुद्ध सात्विक 

सत्य रहो मर्यादा 

मूल्यों का उल्लास

विजय पर्व का 

युग अमूल्य रहो!!


भाई विभीषण 

कुल विध्वंसक 

त्रेता में अकेला मात्र।।


भ्राता द्रोही कलयुग में 

हर कुल परिवार में

विध्वंस द्रोही नही कोई 

मिलता अपवाद मात्र।।              


स्वार्थ में अंधे कुछ भी 

संभव कर जाते 

अन्याय पाप मर्म 

राम का धर्म राम का 

कहते इतराते!!              


रावण मै प्रतीक 

अधर्म का मुझमे भी है 

कुछ अच्छाई।।                 


राम पूर्ण धर्म का 

प्रतिनिधि आदि 

अनादि अनंत प्रतिबिंब 

आत्म भाव परछाई।।                                    


देखो एक ओर 

खड़ा रावण दूजा

अंश सूर्यवंश 

दूसरी ओर 

हर प्रातःयुग का मिटाता

अंधकार फिर भी 

अंधेरा  चहूंओर!!       


मेरी नाभि का अमृत 

मुझे अमर नहीं 

कर पाया 

कलयुग पाप पूंज के 

अंधकार में 

आशा और 

विश्वस किरण का 

एक उजाला राम।।  


स्वय भगवान् सर्व 

शक्तिमान सूर्यवंश

अभिमान हर प्रातः का 

नव जीवन संदेश 

जीवन उद्देश्य फिर भी 

राम सिर्फ प्रतीक मात्र।।     


नव ग्रह दीगपाल 

हमारे कदमाे और 

सेवा में देवो का 

राजा इंद्र पखारे 

पाव हमारे मेरे 

कदमों से 

अवनी डोले!!


शिव शक्ति कि 

भक्ति में मैंने अपने ही 

शीश चढ़ाए दस बार 

मेरी बीस भुजाएं  मेरे

पराक्रम को करती

परिभाषित कलयुग

 में भी आज।।                 


मैंने शिवआसन 

आवास उठाया

कैलाश कुबेर का

पुष्पक साहस शक्ति से 

मैंने पाया सोने कि 

लंका मैंने 

फिर भी सुख चैन 

कभी ना आया रास!!                        


मुझे मारने ब्रह्मांड 

सत्य के परब्रह्म ने 

स्वयं लिया 

मनुज अवतार ll       


दशो दिशाओं 

भुवन लोक में 

मेरी तूती कि गूंजती 

आवाज।।                   


भुवन भास्कर 

चन्द्र सप्तर्षि मंडल 

मेरी इच्छा और 

इशारे पर नाचे नाच।।     


ऋषियों के रक्त 

कर कलश शेषनाग 

फन कि अवनी 

हृदय भाव में 

स्थापित कर स्वंय कि

चुनौती का निर्माण

किया आधार!!


मुझे मारने की 

खातिर तापसी वेश 

विशेष उदासी 

वन वन भटका 

अंश शेष और राम।।


पत्नी वियोग में 

साधारण मानव सा 

रोया अविनाशी ईश्वर 

पत्नी की  मृगमरीचीका 

माया में खोया संग भाई 

बैरागी चौदह वर्ष नहीं सोया!!


एक लख पूत 

सवा लख पौत्र 

उत्तम कुल पुलस्त  

कर मैं नाती।    

विश्वेस्वरवा पुत्र 

मय दानव का जमता 

सबल कुल परिवार 

ऋषि दानव के 

संयुक्त रक्त श्रेष्ठ !!


रावण को मार 

सकने में 

अकेला नही सक्षम 

मर्यादा पुरुषोत्तम 

राम अवतार।।


चौदह वर्ष रहा 

जागा लक्षण शेषा

अवतार बानर 

रिछ मित्रता कि भी 

पड़ी दरकार!!   


अपने युग जीवन में 

बना रहा चुनौती 

रच डाले जाने 

कितने ही इतिहास।।                         


युद्ध अनेकों विजय 

गाथा कि 

गाथा मेरा जीवन 

संसार शस्त्र शास्त्र के 

कर डाले कितने 

आविष्कार!!      


रामेश्वर तट पर 

शिवा बना गवाह 

टूटी सागर कि 

मर्यादा और 

स्वाभिमान।।                  


नदियां सागर पहाड़

प्रकृति ब्रह्मांड के 

दर दर भटका स्वयं 

परब्रह्म ब्रह्मांड!!


युद्ध भूमि में भाई कि 

खातिर करता रहा 

विलाप 

हनुमान सा 

स्वामी भक्त 

जामवंत सा

मंत्री रिछराज।।   


सम्पाती कि 

गिद्ध दृष्टि 

जटायु का 

भक्ति भाव 

लाखों ऋषियों का 

श्राप मेरे कंधो पर 

था भार ।।                   


जाने कितने यत्न 

प्रयत्न असंभव के 

संभव से मेरे समक्ष 

युद्ध भूमि मुझे मारने  

पहुचें श्री राम!!       


रावण के मरने 

जलने का उमंग 

उल्लाश विजय पर्व 

मनाते क्यो हो?


ना राम कि पितृ भक्ति 

ना साहस शक्ति मर्यादा 

फिर मेरा राम से मारा 

जाना जलना क्यों बुराई पर 

 विजय अच्छाई

विश्वास आस्था बताते हो।।          


पुरुषार्थ पराक्रम से 

मैं लड़ा कितनी बार 

छकाया और थाकाया 

राम को हारा और 

मरा भी कितने ही 

इतिहास बनाए!!


छुद्र स्वार्थ में खुद के

सुख विश्वास में 

कितने रक्त बहाते हो 

अबला नारी कि 

चीत्कार से सुर 

संगीत सजाते हो।।              


मैंने तो जानकी को

ना देखा ना उसने 

मुझकॊ देखा ।।             


तुम क्या जानो 

मेरे मरने जलने कि 

मेरी वेदना ?

का मतलब तुम अंधे 

सावन के तुमको अपने 

मतलब के मानव दानव!!        


ना तुममे रावण जैसा 

पराक्रम ना शस्त्र शास्त्र का 

ज्ञान पाले बैठे हो

 व्यर्थ का अहंकार।।                       


भ्रम है तुम्हारा 

रावण का मरना 

जलना तेरा 

विजय उल्लास 

ना हो रावण तुम 

ना मर्यादा के 

तुम राम!!         


भाई  भाई लूट रहा 

बहना को भाई लूट रहा 

माँ को बेटा लूट रहा 

हर रिश्ते को 

रिश्ता लूट रहा ।।                      


ना कोई शर्म लाज़ है 

ना कोई नैतिकता

ना राम कि 

मर्यादा तुम 

ना रावण कि 

तुम गरिमा मॉन!!


मनाते मेरे 

मरने जलने पर 

विजय पर्व का

उल्लास किस बात का 

और क्यो?    


मैं तो त्रेता में मरा जला 

तब से अब तक 

जलते मरते 

युगों युगों से 

दुर्दशा राम कि 

देख रहा हूँ ।।


बेबस लाचार मैं 

एक बार मरा जला 

तब से राम पल पल 

घूँट घूँट कर अपनो से 

होता अपमानित 

पल प्रहर संध्या और प्रभात।।


अमर्यादित होकर 

सूर्य वंश के सूर्योदय के 

अंधेरे में भटक रहा है राम!!


छोड़ाे व्यर्थ मेरे 

मरने जलने का 

विजय उल्लास पर्व को ।            


एक बार सिर्फ 

एक बार सिर्फ

एक बार सिर्फ

मेरी चिता 

अग्नि कि लपटों से 

खुद में छुपे बसे 

रावण का 

कर दो नाश ।।                            


रावण जलने के 

प्रकाश से खुद के 

अंधकार को त्यागों 

तब होगा रावण मेरा 

मरना जलना 

विजय पर्व युग के 

अंधेरे का उजियारा!!           

                                                

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।


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