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UTSAV ANAND

Abstract

4.5  

UTSAV ANAND

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किसान-मेघ संवाद

किसान-मेघ संवाद

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ओ जलधर ! तुम कहाँ चले  

आँखे चुरा इस बार भी भाग रहे 

रुको! जरा ठहरो थोड़ी मेरी भी सुनते जाओ 

सभी नजरअंदाज करते मुझे

कम से कम तुम रुक जाओ।

सुन यह पुकार ठिठका बादल 

धीमी कर अपनी चाल वह रुका 

कहो ! ए मानव क्यों पुकारा मुझे ? 


ऐसी क्या विपदा है आन पड़ी जो रोका है तुमने मुझे 

अरे बादल हूँ नही रुकता किसी के लिए मैं 

बेबाक बहता रहता हूँ सो करो ना विलम्ब

तुम जो कहना है कहो जल्दी। 

क्या क्या कहूँ और किस किस से कहूं तुम्हीं बतलाओ 

तुम्हे जिसने बनाया मेरा भी निर्माता है वही 


जिह्वा तो दी मुझे शायद मगर बाकी

लोगों को बहरा बना भेज दिया है उसने

धरती पर अपनी परेशानी कह कर तक

गया तब आवाज़ लगाया है तुम्हें।


अच्छा ! ज्यादा समय तुम्हारा ना व्यर्थ करूँगा मैं

तो सुनो हे मेघ अब मेरा वृतांत।

मैं धरती का वासी तुम अंबर में विचरण करने वाले हो 

सुना है वह भगवान भी वही आकाश में रहता है कहीं

सत्य है यह बात यदि 

तो हो सके अगर तो उस तक भी पहुंचा देना यह व्यथा मेरी।

आलीशान महलो में है नही आशियाना

मेरा सो पौ फटते ही रोज़ उठ जाता हूँ

निकल पड़ता हुन लाद फावड़ा कंधे पर मैं अपबे !

जोतता हूँ हर दिवस यह धरा मैं ! 


बोता हूँ बीज अनेक जिनके साथ ही

दब जाती है किस्मत भी मेरी।

हे मेघ आशा करता हूँ हर वर्ष मैं यही  

इस बार तो समय से आ जाओगे तुम


दामिनी को संग ला गरज़ गरज़ बरस कर

मेरी तपस मिटा जाओगे तुम

लहलहा उठेंगी मेरे भी खेत और जी भर

कर मना पाऊंगा मैं भी उत्सव इस वर्ष।


बादल था समझ रहा अब आगे किसान क्या कहने वाला था 

सो बीच मे टोक वह भी उसे जवाब देना चाहता था 

एक मेहनतकश इंसान को वो "कर्मफल" का ज्ञान देने चाहता था 

मगर इस विचार को त्याग धीरज धर

मौन रहना ही उचित समझा उसने।


कह उठा फिर किसान द्रवित आवाज़ में 

है मेघ तुम भी हर वर्ष आते हो

मेरी दशा देख कर भी दया ना दिखाते हो

कभी तो तुम विकराल रूप धर

सारी उम्मीदों पर पानी फेर जाते हो 


तो कभी अट्टहास करते हुए

बून्द बून्द को तरसा कर ओझल हो जाते हो

अरे तुम तो हो ही निर्दयी इसीलिए

कभी एक स्थान पर ना टिक पाते हो। 

अन्नदाता कह भाषणों में पूजते भी हैं सभी मुझे यहाँ


मगर मेरी मेहनत की फसलों को

कौड़ियों के भाव खरीद ले जाते हैं  

साहूकार तो मानो मेरे खून से ही

अपनी प्यास बुझाते हैं 


मृत्यु भी करती है छलावा

मेरे साथ वो भी इस द्वार ना आती है 

लेकिन शायद वह भी एक बात ना जानती है ! 

ना जाने कितनी मौत मेरी आत्मा

हर रोज सहन कर भी जीवित रह जाती है।


कृषक अब शांत हुआ

मानो मेघ के उत्तर की प्रतिक्षा

सिथिल हो वही धरती पर बैठ गया।


भीषण गर्जना करने वाला मेघ भी अब हो गया शांत था 

उसका भी हृदय था पसीज रहा 

उस दिवस वह बादल भी रोया 

शायद पहली दफे इंद्र के आदेश की अनदेखी कर

वह उस किसान के ऊपर "अमृत" बन बरसा।


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