पहचान
पहचान
तुम ना समझ हो,
ठंडी रातों में यूँ ही बैठे हो
हम जानते हैं तुम्हारी ज़रूरतें
और तुम्हारी हक़ीक़त
दे दिया सारा जहाँ, फिर भी
तुम यूँ ही ऐंठे हो।
तुम नहीं जानते कि
किस बहकावें में गुम हो
कब जागोगे तुम
मैं तो कहता हूँ
ताक़त कब अपनी
खुद पहचानोगे तुम।
तभी दूसरी ओर से आवाज आयी
मेरी छोड़, तू अपनी कह !
क्यूँ नींदें उड़ गयी हैं तेरी
रातों की, जब से
क़ीमतें हम अपनी मेहनत की
तुमको बताने बैठें हैं।